मीराबाई की कृष्ण भक्ति |Dharmik kahaniya| Bhakti Stories |Bhakti Kahani

मीराबाई की कृष्ण भक्ति

मीरा बचपन से ही कृष्ण भक्त थी, मीरा का विवाह उदयपुर के महाराणा भोजराज के साथ हुआ था।
विवाह के थोड़े दिन बाद ही उनके पति का स्वर्गवास हो गया,पति के स्वर्गवास के पश्चात् इनकी कृष्ण भक्ति बढ़ती जा रही थी,मीरा मंदिरों में जाकर कृष्ण के मूर्ति के समक्ष भजन गाने के साथ – साथ नाचने भी लगती थी।
इस प्रकार मीराबाई का कृष्ण भक्ति में नाचना- गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगता था,घर वालों ने कई बार मीराबाई को मना किया लेकिन उनकी कृष्ण भक्ति बढ़ती जा रही थी, उनके इस व्यवहार से घर वाले नाराज थे, और उन्होंने विष देकर मीरा को मारने की कोशिश किया।
घर वालों के व्यवहार से परेशान होकर कभी- कभी मीरा वृन्दावन और द्वारका चली जाती, जहाँ उन्हें लोगों से सम्मान और प्यार मिलता था, अपने घर वालों के व्यवहार से दुखी होकर मीरा ने तुलसीदास को पत्र लिखा——

“स्वस्ति श्रीतुलसी गुण भूषण ,दूषण हरण गुसाई ।
बारहि बार प्रणाम करहुँ , हरे शोक समुदाई ।।
घर के स्वजन हमारे जेते , सबहि उपाधि बढ़ाई ।
साधु संग अरु भजन करत मोंहि देत कलेस महाई ।।
बालपने ते मीरा कीन्ही गिरिधर लाल मिताई ।
सो तो अब छूटै नहिं क्यों हूँ लगी लगन बरियाई ।।
मेरे मात पिता सम हौ हरि भक्तन समुदाई ।
हम कूँ कहा उचित करिबो है सो लिखिए समुझाई।।”

मीरा तुलसी दास जी से कहती हैं कि- “हे तुलसी दास जी मैं आपको बार-बार प्रणाम करती हूँ कि आप मेरा सभी दुःख दूर करें, मेरा मार्गदर्शन करें, मेरे पति भगवान को प्यारे हो गये हैं अर्थात उनका स्वर्गवास हो गया है, साधु- सन्तों की सेवा और भगवत भजन में मेरे सम्बन्धी लोग (ससुराल वाले) मुझे बहुत कष्ट दे रहें हैं,मुझे मेरे भगवन श्री कृष्ण से दूर करने की कोशिश कर रहे हैं।,मेरे लिए मेरे माता पिता से ज्यादा, भगवान की भक्ति में सुख मिलता है जो मेरे सम्बन्धियों को रास नहीं आती है,अब मैं क्या करूँ मुझे समझ में नहीं आ रहा है,आप मुझे राह दिखाएं या मेरे लिए क्या उचित है मुझे समझाने का कष्ट करें।”

मीराबाई की कृष्ण भक्ति

मीरा बाई के इस पत्र को पढ़कर तुलसीदास जी ने जबाब दिया—-

“जाके प्रिय न राम बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।
तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु,भरत महतारी ।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितहिं,भए मुद-मंगलकारी।।
नाते नेह राम के मनियत सुह्रद सुसेब्य जहां लौं ।
अंजन कहा आंखि जेहि फूटै ,बहुतक कहौं कहाँ लौं ।।
तुलसी सो सब भांति परम हित पूज्य प्रानते प्यारे ।
जासों होय सनेह राम – पद , एतो मतो हमारो।।”

तुलसीदास जी मीराबाई के पत्र का जबाब देते हुए कहते हैं कि “जिन्हें भगवान से प्रेम नहीं हो उसको करोड़ों दुश्मन की तरह समझ कर उसका त्याग कर देना चाहिए, चाहे वो कितना भी प्रिय क्यों न हो,जैसे- प्रह्लाद ने पिता, विभीषण ने भाई, भरत ने माता, राजा बलि ने गुरु शुक्राचार्य तथा ब्रज की गोपियों ने अपने पतियों का त्याग कर दिया, जहाँ तक हो सके भगवान की सेवा में लगना चाहिए,उन्हीं से प्रेम करना चहिए और क्या कहूँ जिस काजल को आँख में लगाने से आँख ही अंधा हो जाए उस काजल को आँख में नहीं लगाना चहिए, तुलसीदास जी कहते हैं कि भगवान ही प्राणों से भी ज्यादा प्रिय हैं और भगवान से ही प्रेम करना चहिए यही मेरा विचार है।”

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